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ग़ालिब के मनपसंद शेर

अब रचनात्मकता के कुछ पढ़ते आकाल के कारण कुछ मौलिक की जगह में अपने अपने पसंदीदा लेखको और शायरों के कुछ अच्छी रचनाये प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहा हु ॥ पहेली किस्त के रूप में में अपने पसंदीदा शायर जनाब मिर्जा ग़ालिब के कुछ मेरे पसंदीदा शेर पोस्ट कर रहा हु। क्योंकि कहते है ना 'हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे कहते हैं पर कहते है की ग़ालिब का अंदाज़-ए-बयाँ और ही हैं' १। 'न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता, तो ख़ुदा होता डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता'! २। 'ग़ालिब वज़ीफ़ाख़्वार हो दो शाह को दुआ वो दिन गए कि कहते थे नौकर नहीं हूँ मैं' ३। चिपक रहा है बदन पर, लहू से पैराहन, हमारी जेब को अब हाजते-रफू क्या है। ४। 'हुई मुद्दत के 'ग़ालिब' मर गया, पर याद आता है वो हर बात पर कहना के यूँ होता तो क्या होता' ५। घर जब बना लिया है तेरे दर पर कहे बग़ैर जानेगा तू भी अब न मेरा घर कहे बग़ैर ६। मोहब्बत में नही है है फर्क जीने मरने का , उसी को देख कर जीते है जिस काफिर पर दम निकले ७। हर एक बात पर कहते हो तुम की तू क्या है! तुम ही कहो की ये अंदाजे गुफात