Posts

Showing posts from 2009

सफ़र जारी है और मजिल बिसर गई,

सफ़र जारी है और मजिल बिसर गई, महोब्बत तो हो गई पर दिलरुबा किधर गई, जाम भी खाली है और महफ़िल भी है उदास उस मैखाने का क्या कसूर जिसके साकी की खबर नहीं याद थी वो ग़ज़ल, अब तो वो भी बिसर गई, होठो पर तो थी अभी अब जाने किधर गई जिस जगह जाने को पाँव बढ़ जाते थे अपने आप अब ना वो गली है, और उसमे अब कोई घर नहीं दुनिया में करता है कोई मुझ से भी महोब्बत, मुझे क्या मालुम मुझे कोई खबर नहीं (keval gazal hai dosto .. isko filhaal mere haal se naa jodhiyega..)

गाँधी का भारत और जिन्ना का पाकिस्तान

एक बार किसी ने गाँधी जी से पुछा.. आप आजाद भारत में कैसी शिक्षा प्रणाली चाहते है बापू, तो गाँधी जी बोले,,, की जब में किसी कक्षा में बच्चो से पूछु की अगर एक दुकान दार २५ पैसे में एक सेब खरीदता है और १ रूपए में बेचता है तो उसको कितना मुनाफा मिलेगा , और अगर सारे बच्चे जवाब दे की " जेल होगी" ऐसी नैतिक सिख्षा चाहता हु॥ किसी भी व्यापारी को नैतिकता के आधार पर ये हक नहीं है की वो २५ पैसे की चीज़ पर तिगुना लाभ कमाए। आज कल जो जीना साहब की बहस हो रही है की वो महान नेता थे धर्मनिरपेक्ष थे और पाकिस्तान ने उनके सपनो को पूरा नहीं किया .. प्रश्न ये है की क्या हिंदुस्तान ने गाँधी के सपनो का भारत बनाया है ...? आज़ादी के पहले दिन जब पूरा देश उत्सव में डूबा था तब भी गाँधी जी यही कहते थी की उत्सवो से पहेले देश बनाओ। आज तक ये देश तथाकथित आज़ादी के उत्सव में डूबा है,, भ्रस्ताचार की आज़ादी, खून करबे की आज़ादी, फरेब और ज्हूठ की आज़ादी, प्रांतवाद की आज़ादी॥ पैर जो सपने एक आजाद देश के आ व्यकी ने देखे थे जिनको सब राष्ट्र पिता और बापू कहते है वो शयद ५०० के नोट की तस्वीर में बस कर रह गए है,, उस के बह

लपक झपक तू आरे बदरवा

Image
हाफ्फ्फ़ ॥ बारिश बारिश और बारिश॥ इंदौर के लोग बारिश के लिए यज्ञ कर रहे थे ३ महीने पहेले। और २ दिन की बारिश ने लगता है उनको भी लग रहा होगा की भगवान् लोगो की पुकार सुनते है॥ पर लगता है सब की तो नही सुनते॥ .कल प्रचंदाकारी बारिश में घर जाते समय उफनाते नालो और उसके किनारों की बस्तियों पर लोगो के घर पर से जाए हुए पानी को देख कर बरसो पहले देखि हुई एक फ़िल्म की याद आ गई ॥ फ़िल्म थी "बूट पोलिश".....जैसा याद आ रहा है .... उसमे डेविड जब जेल में अपने साथियों के मनोरंजन और उनपर प्रभाव ज़माने के लिए राग मल्हार गाता है॥ और वों गाना गता है... "लपक जपक तू आ रे बदरवासर की खेती सूख रही हैबरस बरस तू आ रे बदरवाझगड़ झगड़ कर पानी ला तूअकड़ अकड़ बिजली चमका तूतेरे घड़े में पानी नहीं तोपनघट से भर लारे बदरवा ...बन में कोयल कूक उठी हैसब के मन में हूक उठी हैभूदल से तू बाल उगा देझट पट तू बरसारे बदरवा ..." और गाने के अंत में सच मच मुसलाधार बारिश हूँ जाती है ... और उसको देख कर पहेले वों खुश होता है की उसकी राग मल्हार सफल हो गया ॥ और फ़िर रोने लगता है..... उसे अपने बस्तियों के साथियों की याद आने लगती है॥

सआदत हसन मंटो की कहानी : टोबा टेकसिंह

बंटवारे के दो-तीन साल बाद पकिस्तान और हिंदुस्तान की सरकारों को ख्याल आया कि साधारण कैदियों की तरह पागलों का भी तबादला होना चाहिए। यानी जो मुस्लमान पागल हिंदुस्तान के पागलखाने में हैं, उन्हें पाकिस्तान पहुंचा दिया जाए और जो हिंदू पाकिस्तान के पागलखानों में हैं, उन्हें हिन्दुस्तान के हवाले कर दिया जाए। मालूम नहीं यह बात ठीक थी या नहीं। बहरहाल बुद्धिमानों के फैसले के अनुसार इधर-उधर उंचे स्तर की कांफ्रेंस हुई और आखिरकार एक दिन पागलों के तबादलों के लिए नियत हो गया। अच्छी तरह छानबीन की गई। वे मुस्लमान पागल, जिनके अभिभावक हिंदुस्तान में थे, वहीं रहने दिए गए थे। और जो बाकी थे, उन्हें सीमा पर रवाना कर दिया गया था। यहां पाकिस्तान से, क्योंकि करीब-करीब सब हिंदू-सिख जा चुके थे, इसलिए किसी को रखने-रखाने का सवाल ही न पैदा हुआ। जितने हिंदू-सिख पागल थे, सबके सब पुलिस के संरक्षण में सीमा पर पहुंचा दिए गए। उधर की मालूम नहीं, लेकिन इधर लाहौर के पागलखाने में जब इस तबादले की खबर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प और कौतूकपूर्ण बातें होने लगीं। एक मुस्लमान पागल, जो बारह बरस से रोजाना बकायदगी के साथ नमाज पढ़ता था, उससे जब

मैं यहाँ तू वहाँ , जिन्दगी है कहाँ !- बागबान

मैं यहाँ तू वहाँ , जिन्दगी है कहाँ ! तू ही तू है सनम , देखता हूँ जहाँ ! नींद आती नही , याद जाती नही ! बिन तेरे अब , जिया जाये न ! मैं यहाँ तू वहां , जिन्दगी है कहाँ ! वक़्त जेसे , ठहर गया है यहीं ! हर तरफ , एक अजब उदासी है ! बेकरारी का , ऐसा आलम है ! जिस्म तन्हा है , रूह प्यासी है ! तेरी सूरत अब एक पल , क्यूँ नजर से हटती नही ! रात दिन तो कट जाते हैं , उम्र तन्हा कटती नही ! चाहके भी न कुछ , कह सकूँ तुजसे मैं ! दर्द केसे , करूं मैं बयाँ ! मैं यहाँ तू वहाँ , जिन्दगी है कहाँ ! जब कहीं भी आहट हुई , यूँ लगा के तू आ गया ! खुस्भू के झोंके की तरह , मेरी सां से महका गया ! एक वो दौर था , हम सदा पास थे ! अब तो हैं , फासले दरमियाँ ! मैं यहाँ तू वहाँ , जिन्दगी है कहाँ ! बीती बातें याद आती हैं , जब अकेला होता हूँ मैं ! बोलती है खामोशियाँ , सबसे छुपके रोता हूँ मैं ! एक अरसा हुआ मुश्कुराए हुए , आसुओं में भरी दस्स्तान ! मैं यहाँ तू वहाँ , जिन्दगी है कहाँ ! तू ही तू है सनम , देखता हूँ जहाँ ! नींद आती नही , याद जाती नही ! बिन तेरे अब , जिया जाये न !

भारत में लोकतंत्र नही है वोट तंत्र है ...

Image
काफ़ी समय से में भारतीय लोकतंत्र पर कोई लेख लिकना चाहता था ताकि अपने विचारो को आप तक पोंउंचा सकू, आज नवभारत में एक मिलता जुलता लेख है , काफ़ी आचा लिखा हुआ है, लोकतंत्र को वोटतंत्र से आगे ले जाने की जरूरत अरविंद केजरीवाल 13 May 2009, 0755 hrs IST,नवभारत टाइम्स से स : आभार दुनिया के लगभग सभी लोकतांत्रिक देशों में अब यह महसूस किया जाने लगा है कि सिर्फ वोट दे कर सरकार चुनने की व्यवस्था से प्रशासन में जनता की पूरी भागीदारी नहीं होती। इसलिए अनेक देशों में अब पार्टिसिपेटरी गवर्नंस को बढ़ावा देने वाले मॉडल विकसित किए जा रहे हैं। इनके बहुत ही उत्साहवर्द्धक नतीजे सामने आ रहे हैं। अमेरिका में हर मुहल्ले की अपनी स्थानीय असेंबली होती है। वहां एक फुटपाथ भी बनना हो तो म्युनिसिपैलिटी हरेक बाशिंदे से उसकी राय पूछती है। स्थानीय नागरिक निश्चित तारीख को टाउन हॉल में उपस्थित होते हैं और ऐसी योजनाओं पर अपना फैसला सुनाते हैं। आपने वॉलमार्ट का नाम सुना होगा। इस प्रसिद्ध रिटेल चेन को ओरेगांव में अपना स्टोर खोलना था। इस पर ओरेगांव के नागरिक टाउन हॉल में इकट्ठा हुए। विचार-विमर्श के दौरान उन्होंने पाया कि इससे इल

पी रहा हूँ की पीना भी एक आदत है

फिराक गोरख पुरी साहब ने एक शेर लिखा था , मैं चल रहा हूं कि चलना भी एक आदत है, ये भूल कि ये रास्ता किधर को जायेगा। हम सब के साथ ऐसा ही होता है , हम चलते जाते है दिशाहीन से क्योकी हम केवल चलना चाहते है कही पहुंचना नही , या फ़िर जहा पहुँचते है वों मंजील नही होती, खेर मेरे एक दोस्त जीतेन्द्र जी ने इसी शेर में कुछ रचनात्मक तबदिलियाकर के इसे अपने रंग में ढाला कर कुछ पंक्तयां दी थी जिसे हमलोगों ने कुछ और लाइन मिला दी... मैं पी रहा हूँ की पीना भी एक आदत है, यह भूलकर की यह मय कहाँ ले जायेगी की पी के संभालना ही मेरी शराफत है यह भूलकर की यह गंध देर तलक आएगी की गिर कर भी कहता हु होंश में हु मैं यह आदत तो अब जाते जाते ही जायेगी लोग याद भी करते है मरने के बाद जीते जी तो दुनिया बड़ी सताएगी इसी लिए होश में रहना नहीं चाहता हु मैं होंश में आते ही ये दुनिया बदल जायेगी

कुछ शायरी .. अलग अलग शायरों की

Image
बीबीसी हिन्दी से स: आभार १। बदन में आग सी चेहरा गुलाब जैसा है के ग़म-ए-जुदाई का नशा भी शराब जैसा है मगर कभी कोई देखे कोई पढ़े तो सही दिल आईना है तो चेहरा किताब जैसा है 2. हमारी आह से पानी मे भी अंगारे दहक जाते हैं ; हमसे मिलकर मुर्दों के भी दिल धड़क जाते हैं .. गुस्ताख़ी मत करना हमसे दिल लगाने की साकी ; हमारी नज़रों से टकराकर मय के प्याले चटक जाते हैं....!!!!!!!!!!! 3. इस तरह हर ग़म भुलाया कीजिये रोज़ मैख़ाने में आया कीजिये छोड़ भी दीजिये तकल्लुफ़ जब भी आयें पी के जाया कीजिये ज़िंदगी भर फिर न उतेरेगा नशा इन शराबों में नहाया कीजिये ऐ हसीनों ये गुज़ारिश है मेरी अपने हाथों से पिलाया कीजिये 4. छ्लक के कम ना हो ऐसी कोई शराब नहीं निगाहे नरगिसे राना, तेरा जवाब नहीं दिखा तो देती है बेहतर हयात के सपने खराब हो के भी ये ज़िन्दगी खराब नहीं

सुरा समर्थन / काका हाथरसी

सुरा समर्थन / काका हाथरसी भारतीय इतिहास का, कीजे अनुसंधान देव-दनुज-किन्नर सभी, किया सोमरस पान किया सोमरस पान, पियें कवि, लेखक, शायर जो इससे बच जाये, उसे कहते हैं 'कायर' कहँ 'काका', कवि 'बच्चन' ने पीकर दो प्याला दो घंटे में लिख डाली, पूरी 'मधुशाला' भेदभाव से मुक्त यह, क्या ऊँचा क्या नीच अहिरावण पीता इसे, पीता था मारीच पीता था मारीच, स्वर्ण- मृग रूप बनाया पीकर के रावण सीता जी को हर लाया कहँ 'काका' कविराय, सुरा की करो न निंदा मधु पीकर के मेघनाद पहुँचा किष्किंधा ठेला हो या जीप हो, अथवा मोटरकार ठर्रा पीकर छोड़ दो, अस्सी की रफ़्तार अस्सी की रफ़्तार, नशे में पुण्य कमाओ जो आगे आ जाये, स्वर्ग उसको पहुँचाओ पकड़ें यदि सार्जेंट, सिपाही ड्यूटी वाले लुढ़का दो उनके भी मुँह में, दो चार पियाले पूरी बोतल गटकिये, होय ब्रह्म का ज्ञान नाली की बू, इत्र की खुशबू एक समान खुशबू एक समान, लड़्खड़ाती जब जिह्वा 'डिब्बा' कहना चाहें, निकले मुँह से 'दिब्बा' कहँ 'काका' कविराय, अर्ध-उन्मीलित अँखियाँ मुँह से बहती लार, भिनभिनाती हैं मखियाँ प्रेम-वासना रोग मे

आज कल

पिछले शुक्रवार को अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद ऑफिस जल्दी आ कर शाम को पुस्तक मेला गया,, काफ़ी दिनों से इच्छा थी॥ या कहू कुछ सालो से , की पुस्तक मेले में जाऊँगा और कुछ बुक्स खरीदूंगा अच्छी अच्छी॥ शाम करेब ५.३० पर , GSITS के सामने बल्विने मन्दिर पर लगे पुस्तक मेले में गया॥ कुछ खास नही करीद पाया। मेने शरद जोशी की २ किताबे खरादी , जो लोग शरद जोशी को नही जानते उन्क्की जानकारी के लिए वों हिन्दी व्यंग के शिखर पुरूष थे और उनके समक्ष में केवल परसाई जी को रखता हु , उनके व्यंग आम आदमी के व्यंग होते है और साथ में कुछ तीखे तीर भी होते है , जैसे शक्कर की चासनी में किसी ने हरी मिर्ची किला दी हो ॥ खेर फ़िर मेने कुछ और किताबे ली कुछ furniture designing की ॥ अच्छा कोल्लेक्शन था॥ पर फ़िर अगले साल की व्यस्तता को देखते हुए ॥ मेने ज़्यादा कहानियो की किताबे नही ली॥ क्यो की मेरे जीवन में ही एक नया अद्ध्याय शुरू होने वाला है ,, आज ३ फरबरी है और ..१३ को शादी होने वाली है ॥ चंद दिन ही है शेष... आज भयिया भी आए USA से ,, साथ में छोटू और भाभी,, छोटू को देख कर भौत ही सुकून मिलता है ॥ भौत ही प्यारा बच्चा है ..आज

सारे जहाँ से अच्छा-- विचार बड़ा या विचारक

Image
कभी कभी ऐसा होता है, की कोई विचार किसी विचारक से बड़ा बन जाता है , या कोई रचना रचियता से ज़्यादा महान हो जाती है , कोई की रचना कार का अपना एक जीवन काल होता है और रचना का अपना, रचना कार अपने जीवन कल में अपने मूल विचार से भटक सकता है या फ़िर अपनी विचार धारा परिवर्तित कर सकता है, परन्तु रचना जो होती है वों अपने अलग ही जीवन काल में होती है और काफी समय बाद जब कोई रचनाकार अपनी रचना को देखता है तो वों उस विचार से ही अनजान लगता है जो उसने खुद रचा था, "सारे जहा से अच्छा " जिसे तराना-ए-हिन्द कहा जाता है इसी का एक जीता जगता उदहारण है , इस गीत को प्रसिद्ध शायर मुहम्मद इक़बाल ने 1905 में लिखा था, और पूरी उमंग से एक सार्वजनिक कार्यक्रम में सुनाया था , यह ग़ज़ल हिन्दुस्तान की तारीफ़ में लिखी गई है और अलग-अलग सम्प्रदायों के लोगों के बीच भाई-चारे की भावना बढ़ाने को प्रोत्साहित करती है, परन्तु 1905 के बाद इकबाल के विचारो में काफ़ी परिवर्तन आया , और उन्हें भाईचारे की जगह शायद धार्मिक चश्मा लगा लिया और भारत के विभाजन और पाकिस्तान की स्थापना का विचार सबसे पहले उठाया। वे जिन्ना के प्रेरणा स्त्र

हिममता और महेनता -- यादो का अल्बम -1

चौकिये नही की ये क्या लिखा है, में अभी आप को समझाता हु, बात है सन १९८७ की, जब में ४-५ साल का था, और सब बच्चो की तरह शरारती था पर अपनी धों में कोय रहेने वाला बच्चा था, हुआ कुछ ऐसा की में सब के सामने अखबार ले कर बैठा, सब को प्रभीवित करने के लिए मेने वों अख़बार पढ़ना शुरू किया, सब से अच्छा फिल्मो वाला पेज लगता था, जहा पर सिनेमा में जो फिल्म लगती थी उनके पोस्टर और समाये रहेते थे , जैसे शोले - शान से -- रोजाना ३ खेल ... में एक केथोलिक स्कूल में था, तो ज़ाहिर था की मेरी हिन्दी पर इतना ध्यान नही दिया जाता था जितना अंग्रेज़ी पर, तो मेने फिल्मो के नाम पढ़ना शुरू ही किए थे की सब मुझ पर हँसना शुरू हो गए, मेरे दिनेश भइया, पापा॥ मुझे लगा मेने क्या गलती की है॥ मेने फ़िर से ज़ोर से पढ़ा ...हिममता और महेनता ॥ हेहेहे ॥ फ़िर से हँसे सब ॥ भइया, बोले क्या पढ़ रहा है , ध्यान से पढ़, मेने पढ़ा ही ममता और महेनता ॥ गलती मेरे नही थी ॥ आप मत हंसिये ,, फ़िल्म का नाम था हिम्मत और महेनत ॥ पर मेरा मात्र ज्ञान मजोर था जैसा जी सब के साथ शयद होता होगा,, पर यादो के पटल पर ये वाली बात आज तक ताज़ा है और याद कर के आज में सब ह

शादी के बाद

(ये केवल एक मज़ाक है॥ :) शादी के बाद शादी के बाद पहले पांच सालों तक पत्नी अपने पति को कैसे बुलाती है, इसकी एक बानगी - पहला साल : जानू ! दूसरा साल : ओ जी ! तीसरा साल : सुनते हो ? चौथा साल : ओ मुन्ने के पापा ! पांचवा साल : कहां मर गए? -सौजंन्य से NDTV

शादी की वजह - मुंशी प्रेमचंद

भाई अब शादी में १ महिना ही बचा है पर बैठे बैठे सोच रहा था की लोग शादी क्यों करते है, कई कारण होते है , पर तभी मेरी नज़र प्रेमचंद के एक व्यंग पर गई जो की इसी बारे में है ,, तो मेरी बक बक की जगह आप ये प्रेमचंद का लेख देखिये जो की ‘जमाना’ पत्रिका के मार्च, १९२७ के अंक से लिया गया है और सोचिये की आज और उस ज़माने में परिस्थितियों में ज़्यादा परिवर्तन नही आया है शादी की वजह यह सवाल टेढ़ा है कि लोग शादी क्यो करते है? औरत और मर्द को प्रकृत्या एक-दूसरे की जरूरत होती है लेकिन मौजूदा हालत मे आम तौर पर शादी की यह सच्ची वजह नही होती बल्कि शादी सभ्य जीवन की एक रस्म-सी हो गई है। बहरलहाल, मैने अक्सर शादीशुदा लोगो से इस बारे मे पूछा तो लोगो ने इतनी तरह के जवाब दिए कि मै दंग रह गया। उन जवाबो को पाठको के मनोरंजन के लिए नीचे लिखा जाता है—एक साहब का तो बयान है कि मेरी शादी बिल्कुल कमसिनी मे हुई और उसकी जिम्मेदारी पूरी तरह मेरे मां-बाप पर है। दूसरे साहब को अपनी खूबसूरती पर बड़ा नाज है। उनका ख्याल है कि उनकी शादी उनके सुन्दर रूप की बदौलत हुई। तीसरे साहब फरमाते है कि मेरे पड़ोस मे एक मुंशी साहब रहते थे जिनके ए

यादो की गुत्थी-मेमेंटो

Image
यादो की गुत्थी-मेमेंटो पिछले हफ्ते ग़ज़नी के प्रभाव से मेने उसकी प्रेरणा स्त्रोत मेमेंटो देख ली...और लगा तार २ बार देखी क्यो की वो बनी ही कुछ ऐसे थी॥और शायद मेरे जीवन मे जहा तक मुझे याद है ये सबसे ज़्यादा इंटेलिजेंट मूवी है... सारे सीन उल्टे(chronologically) है, और साथ ही समानांतर रूप से कुछ श्याम श्वत सीन भी च्लते रहेते है जो की सीधे है,, और ये जो उल्टे सीन है ये श्यद १०-१२ मीं का एक है और एक घटना होती है फिर आप अगले सीन मे देखते है की वो घटना क्यो हुई, अतः एक रहस्य बना रहता है , और आपको जो हो चुका है उसे याद रखने की चुनोती भी होती है बिलकूल इस चल चित्र के नायक की तरह ..जिसे १५ मिनिट से ज़्यादा कुछ याद नही रहता। इस तरश निर्दशेक ने एक लॉजिकल फ्लो बाँया है हर सीन अपने आप मे पूर्ण है और आपको ऐसा नही लगता की कुछ चीज़े समाज़ नही आ रही .. इस बात का ध्यान रखा गा है की हर सीन अपने आपमे अर्थपूर्ण हो ..दूसरी बात ये है की अंत मे कुछ नायक के दिमाग़ की तरह आपके दिमाग़ मे भी कुछ अनसुलझे प्रश्न रह जाते है.. पेर कभी लगता है की आपको पता है .. आपके दिमाग़ को एक दम ज़ोर डालने पर आप कुछ प्रश्नो के उत्तर