मेला



हर चहरे पर चहरा है , हर हँसी पर में छुपी उदासी है
हर साथी का साथ है सौदा जिसकी कीमत खासी है
साथ केवल पीड़ा देता है पर ये दुनिया का मेला है

मेले की हर बात निराली उसमे कई खेल तमाशे है,
जीवन भी मेले जैसा है, पर इसके खेल सताते है

दुखी सा है मन , अजब सा परेशान है तन मन
थोडी सी है कुछ हल चल , पर खोया है वो बीता अपनापन

आसपास बहौत है लोग पर , नज़र ना आए साथ है कौन ,
खोये अपने भी भीड़ में , अनजान हो गए सब है मौन,

अधुरा , अनमना सा , कुछ खाली कोई कोना इस मन में ,
दे रहा टीस , पीड़ा भी , कुछ पानी भी आया इन आँखों में ,

पता नही ये पानी है या आंसू , फर्क क्या है दोनों में,
शायद पीछे कोई पीड़ा तो है पर पता नही वो क्या है

और नही पता क्यो है सब ऐसा , लगता बिखरा बिखरा सा ,
खोया में हु , या खो गए वो जो अहसास देते थे कुछ अपना सा,

जिस पहेचानी दुनिया जिसको देखा समझा था ,
अब उसकी पहेचान भी अनजानी है ,

अपनी परचाई समझ जिसे रखा साथ में ,
अब वो मुझसे ही बेगानी है
यादें भी तो नही लगती अपनी ,
वो भी बहौत पुरानी है ,

और मुझे यादों पर भी शक है ,
वो सच थी या फ़िर बेमानी है !

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