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Showing posts from May, 2009

मैं यहाँ तू वहाँ , जिन्दगी है कहाँ !- बागबान

मैं यहाँ तू वहाँ , जिन्दगी है कहाँ ! तू ही तू है सनम , देखता हूँ जहाँ ! नींद आती नही , याद जाती नही ! बिन तेरे अब , जिया जाये न ! मैं यहाँ तू वहां , जिन्दगी है कहाँ ! वक़्त जेसे , ठहर गया है यहीं ! हर तरफ , एक अजब उदासी है ! बेकरारी का , ऐसा आलम है ! जिस्म तन्हा है , रूह प्यासी है ! तेरी सूरत अब एक पल , क्यूँ नजर से हटती नही ! रात दिन तो कट जाते हैं , उम्र तन्हा कटती नही ! चाहके भी न कुछ , कह सकूँ तुजसे मैं ! दर्द केसे , करूं मैं बयाँ ! मैं यहाँ तू वहाँ , जिन्दगी है कहाँ ! जब कहीं भी आहट हुई , यूँ लगा के तू आ गया ! खुस्भू के झोंके की तरह , मेरी सां से महका गया ! एक वो दौर था , हम सदा पास थे ! अब तो हैं , फासले दरमियाँ ! मैं यहाँ तू वहाँ , जिन्दगी है कहाँ ! बीती बातें याद आती हैं , जब अकेला होता हूँ मैं ! बोलती है खामोशियाँ , सबसे छुपके रोता हूँ मैं ! एक अरसा हुआ मुश्कुराए हुए , आसुओं में भरी दस्स्तान ! मैं यहाँ तू वहाँ , जिन्दगी है कहाँ ! तू ही तू है सनम , देखता हूँ जहाँ ! नींद आती नही , याद जाती नही ! बिन तेरे अब , जिया जाये न !

भारत में लोकतंत्र नही है वोट तंत्र है ...

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काफ़ी समय से में भारतीय लोकतंत्र पर कोई लेख लिकना चाहता था ताकि अपने विचारो को आप तक पोंउंचा सकू, आज नवभारत में एक मिलता जुलता लेख है , काफ़ी आचा लिखा हुआ है, लोकतंत्र को वोटतंत्र से आगे ले जाने की जरूरत अरविंद केजरीवाल 13 May 2009, 0755 hrs IST,नवभारत टाइम्स से स : आभार दुनिया के लगभग सभी लोकतांत्रिक देशों में अब यह महसूस किया जाने लगा है कि सिर्फ वोट दे कर सरकार चुनने की व्यवस्था से प्रशासन में जनता की पूरी भागीदारी नहीं होती। इसलिए अनेक देशों में अब पार्टिसिपेटरी गवर्नंस को बढ़ावा देने वाले मॉडल विकसित किए जा रहे हैं। इनके बहुत ही उत्साहवर्द्धक नतीजे सामने आ रहे हैं। अमेरिका में हर मुहल्ले की अपनी स्थानीय असेंबली होती है। वहां एक फुटपाथ भी बनना हो तो म्युनिसिपैलिटी हरेक बाशिंदे से उसकी राय पूछती है। स्थानीय नागरिक निश्चित तारीख को टाउन हॉल में उपस्थित होते हैं और ऐसी योजनाओं पर अपना फैसला सुनाते हैं। आपने वॉलमार्ट का नाम सुना होगा। इस प्रसिद्ध रिटेल चेन को ओरेगांव में अपना स्टोर खोलना था। इस पर ओरेगांव के नागरिक टाउन हॉल में इकट्ठा हुए। विचार-विमर्श के दौरान उन्होंने पाया कि इससे इल...

पी रहा हूँ की पीना भी एक आदत है

फिराक गोरख पुरी साहब ने एक शेर लिखा था , मैं चल रहा हूं कि चलना भी एक आदत है, ये भूल कि ये रास्ता किधर को जायेगा। हम सब के साथ ऐसा ही होता है , हम चलते जाते है दिशाहीन से क्योकी हम केवल चलना चाहते है कही पहुंचना नही , या फ़िर जहा पहुँचते है वों मंजील नही होती, खेर मेरे एक दोस्त जीतेन्द्र जी ने इसी शेर में कुछ रचनात्मक तबदिलियाकर के इसे अपने रंग में ढाला कर कुछ पंक्तयां दी थी जिसे हमलोगों ने कुछ और लाइन मिला दी... मैं पी रहा हूँ की पीना भी एक आदत है, यह भूलकर की यह मय कहाँ ले जायेगी की पी के संभालना ही मेरी शराफत है यह भूलकर की यह गंध देर तलक आएगी की गिर कर भी कहता हु होंश में हु मैं यह आदत तो अब जाते जाते ही जायेगी लोग याद भी करते है मरने के बाद जीते जी तो दुनिया बड़ी सताएगी इसी लिए होश में रहना नहीं चाहता हु मैं होंश में आते ही ये दुनिया बदल जायेगी

कुछ शायरी .. अलग अलग शायरों की

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बीबीसी हिन्दी से स: आभार १। बदन में आग सी चेहरा गुलाब जैसा है के ग़म-ए-जुदाई का नशा भी शराब जैसा है मगर कभी कोई देखे कोई पढ़े तो सही दिल आईना है तो चेहरा किताब जैसा है 2. हमारी आह से पानी मे भी अंगारे दहक जाते हैं ; हमसे मिलकर मुर्दों के भी दिल धड़क जाते हैं .. गुस्ताख़ी मत करना हमसे दिल लगाने की साकी ; हमारी नज़रों से टकराकर मय के प्याले चटक जाते हैं....!!!!!!!!!!! 3. इस तरह हर ग़म भुलाया कीजिये रोज़ मैख़ाने में आया कीजिये छोड़ भी दीजिये तकल्लुफ़ जब भी आयें पी के जाया कीजिये ज़िंदगी भर फिर न उतेरेगा नशा इन शराबों में नहाया कीजिये ऐ हसीनों ये गुज़ारिश है मेरी अपने हाथों से पिलाया कीजिये 4. छ्लक के कम ना हो ऐसी कोई शराब नहीं निगाहे नरगिसे राना, तेरा जवाब नहीं दिखा तो देती है बेहतर हयात के सपने खराब हो के भी ये ज़िन्दगी खराब नहीं

सुरा समर्थन / काका हाथरसी

सुरा समर्थन / काका हाथरसी भारतीय इतिहास का, कीजे अनुसंधान देव-दनुज-किन्नर सभी, किया सोमरस पान किया सोमरस पान, पियें कवि, लेखक, शायर जो इससे बच जाये, उसे कहते हैं 'कायर' कहँ 'काका', कवि 'बच्चन' ने पीकर दो प्याला दो घंटे में लिख डाली, पूरी 'मधुशाला' भेदभाव से मुक्त यह, क्या ऊँचा क्या नीच अहिरावण पीता इसे, पीता था मारीच पीता था मारीच, स्वर्ण- मृग रूप बनाया पीकर के रावण सीता जी को हर लाया कहँ 'काका' कविराय, सुरा की करो न निंदा मधु पीकर के मेघनाद पहुँचा किष्किंधा ठेला हो या जीप हो, अथवा मोटरकार ठर्रा पीकर छोड़ दो, अस्सी की रफ़्तार अस्सी की रफ़्तार, नशे में पुण्य कमाओ जो आगे आ जाये, स्वर्ग उसको पहुँचाओ पकड़ें यदि सार्जेंट, सिपाही ड्यूटी वाले लुढ़का दो उनके भी मुँह में, दो चार पियाले पूरी बोतल गटकिये, होय ब्रह्म का ज्ञान नाली की बू, इत्र की खुशबू एक समान खुशबू एक समान, लड़्खड़ाती जब जिह्वा 'डिब्बा' कहना चाहें, निकले मुँह से 'दिब्बा' कहँ 'काका' कविराय, अर्ध-उन्मीलित अँखियाँ मुँह से बहती लार, भिनभिनाती हैं मखियाँ प्रेम-वासना रोग मे...