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Showing posts from July, 2008

"आखरी" ...फ़सल

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काली बरखा तडपए , किसान देखता रहे जाए, बोए धारा पर दाना वो, बरसात को जब आना हो लेकिन बरखा नही है आती, धरतीपुत्र को धरती दिखलाती, सूखी धरती, मुरझाई कोपल,देख के उसका ह्रदय है विहल दुर्बल हुए चौपाए, दुर्बल है घर के दो पाए सभी , निराशा को भी निराशा दिखलाये ऐसा होता उसका मन अभी खेत, घर को गिरवी रख कर बोई थी उसने शायद यह "आखरी" फसल, ये भी सूखी, अब है दुखी,, नही दिखता उसे कोई हल वैसे तो हिम्मत वाला है, लड़ता है हर स्थिति से विकट, मगर आज वो निराश ऐसा, आनादाता को है अन्न का संकट एक बेल बिका था साल पर , जोता था खुदने ये खेत, पर पिछले वर्ष जैसे इस बार भी हुई सारी आशाऐ रेत सोचे की मेरे आसू इतने बहे, सींचा क्यो नही इनसे खेत, भगवान भी शायद नाराज़ है उससे, सोच रहा है कर ले भेंट

सच्चा होता वही संत सा मन

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दूर शहर मे आकर कुछ उदास खुद को पाकर, खोजता हू खुद को, अकेली पगडंडी पर कही चलकर, खेल, रंग और हँसी ठहाका, क्या मनुष्य केवल इन पर निर्भर, अंतर आत्मा को पहचानने मे क्यो संकोच होता है प्रतिपल। दूर भागते रहेने की खुद से कोशिश रहेती सबकी समानांतर, समय नही खुद को पहचाने, दुनिए देखे फिर भी खुलकर, रिश्ते नाते, मित्र सखा, जीवन निकले इनमे पल हरपाल तू क्या है, क्या तुझे है करना क्यों पड़े इसमे सब भूलकर। अंधी सी एक दौड़ है ये सब, माया मोह की है ये उलझन, जो इस के मोह से दूर रहे, सच्चा होता वही संत सा मन .

बहौत भूखा हू मे बाबा मुझे कुछ काम तो दो,

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बहौत भूखा हू मे बाबा मुझे कुछ काम तो दो, मे भिकारी नही कम से कम मुझे ग़रीब का नाम तो दो हाथ पाँव मेरे भी है तुम्हारी ही तरह सलामत वोही दो , श्रम से डरता नही मे, पर उसका उचित दाम तो दो आज सँवारा हुआ है भाग्य तुम्हारा ईश्वर का कभी नाम तो लो , कल जीवन का क्या भरोसा जाने कब क्या फिर हो दया, घ्रना है पाप को तरह, मुझ मे भी भगवान है वो, जो देखता सब है,समझ मत तेरे करमो से अंजान है वो हराम है मेरे लए सब तुम्हारे लए आराम है जो , मेरा जीवन जैसे चक्की, चले नही तो पूर्ण-विराम सा हो , बहौत भूखा हू मे बाबा मुझे कुछ काम तो दो

यादों की उलझन

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यादों की उलझन मैने कही पढ़ा था की इंसान हमेशा अतीत मे जीता है, उसमे और सोचने पर मैने कई बाते पाई, और अगर हम ठीक से विचार करे तो बात सही भी है.आज जो हुआ वो चाहे अच्छा हो या बुरा पर कल याद ज़रूर करेंगे, और ज़्यादा पूरनी यादें थोड़ी भीनी की महक देती है और ज़्यादा अच्छी लगती है एक दम पुराने आचार की तरह, हम हमेशा यादों को किसी किताब मे रखे पेज मार्कर की तारक अपने जहाँ मे बसा लेते है, और यही यादे आपके सोचने कॅया तरीका अवरुद्ध करती है, और कभी कभी आपके विकास को भी प्रभावित करती है, ये मेरा व्यक्तिगत अनुभव है.कोई भी व्यक्ति भविष्य का ऐसे नही सोचता पर ये तो कर सक ता है की वर्तमान मे जीए. आज को जीना ही सच्चा जीवन है.किसी ने शायद इसी लए कहा है ""बीती ताही बिसार दे , आगे की सुध ले" इस कहावत को हम केवल बुरे कल के लए लेते है. अच्छे और सुहाने दीनो के लए भी लागू होती है यही बात. ये गीत शायद इसी बारे मे कुछ कहता है... करोगे याद तो, हर बात याद आयेगी गुज़रते वक़्त की, हर मौज ठहर जायेगी करोगे याद तो ...ये चाँद बीते ज़मानों का आईना होगा भटकते अब्र में, चहरा कोई बना उदास राह कोई दास्तां स...