सच्चा होता वही संत सा मन



दूर शहर मे आकर कुछ उदास खुद को पाकर,

खोजता हू खुद को, अकेली पगडंडी पर कही चलकर,

खेल, रंग और हँसी ठहाका, क्या मनुष्य केवल इन पर निर्भर,
अंतर आत्मा को पहचानने मे क्यो संकोच होता है प्रतिपल।

दूर भागते रहेने की खुद से कोशिश रहेती सबकी समानांतर,

समय नही खुद को पहचाने, दुनिए देखे फिर भी खुलकर,

रिश्ते नाते, मित्र सखा, जीवन निकले इनमे पल हरपाल
तू क्या है, क्या तुझे है करना क्यों पड़े इसमे सब भूलकर।

अंधी सी एक दौड़ है ये सब, माया मोह की है ये उलझन,
जो इस के मोह से दूर रहे, सच्चा होता वही संत सा मन .

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