"आखरी" ...फ़सल

काली बरखा तडपए , किसान देखता रहे जाए,
बोए धारा पर दाना वो, बरसात को जब आना हो

लेकिन बरखा नही है आती, धरतीपुत्र को धरती दिखलाती,
सूखी धरती, मुरझाई कोपल,देख के उसका ह्रदय है विहल

दुर्बल हुए चौपाए, दुर्बल है घर के दो पाए सभी ,
निराशा को भी निराशा दिखलाये ऐसा होता उसका मन अभी
खेत, घर को गिरवी रख कर बोई थी उसने शायद यह "आखरी" फसल,
ये भी सूखी, अब है दुखी,, नही दिखता उसे कोई हल

वैसे तो हिम्मत वाला है, लड़ता है हर स्थिति से विकट,
मगर आज वो निराश ऐसा, आनादाता को है अन्न का संकट
एक बेल बिका था साल पर , जोता था खुदने ये खेत,
पर पिछले वर्ष जैसे इस बार भी हुई सारी आशाऐ रेत

सोचे की मेरे आसू इतने बहे, सींचा क्यो नही इनसे खेत,
भगवान भी शायद नाराज़ है उससे, सोच रहा है कर ले भेंट

Comments

Anonymous said…
itna dard har ek pankti me...

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